एक दिन मैं जा रहा था.
बस चलता ही जा रहा था.
अनभिज्ञ था, नादान था.
बेखबर था, अनजान था.
बेसुध सा, ना जाने कहां,
बस चलता ही जा रहा था.
ना मौसम का कोई हाल था.
ना दिल में कोई ख़याल था.
जाने किस मंज़िल के पीछे
बस चलता ही जा रहा था.
बिखरे थे फुलो के सेज.
लेकिन मैं समय से भी तेज़.
ना किसी से दूर, ना किसी के पास
बस चलता ही जा रहा था.
ना मुझे कोई होश था.
ना उमंगो का जोश था.
फिर भी ना जाने क्यों
मैं चलता ही जा रहा था.
ना डरा, ना झुका.
ना थमा, ना रुका.
अडिग पेर निस्तेज
बस चलता ही जा रहा था.
क्या कभी ख़त्म होगा ये सफ़र.
अर्थहीन था करना ऐसी फिकर.
मुझे तो बस चलना था, इसलिये
मैं चलता ही जा रहा था.
बस चलता ही जा रहा था.
शायद चलता ही रहूंगा . . . . . . . . . .
अचानक एक धमाका हुआ.
छाया हर तरफ काला धुँआ.
क्या इस धुए में भी निरंतर
मैं चलता ही रहूंगा?
मन मे एक ख्याल आया.
एक अनोखा सवाल आया.
कब तक यूँ ही बिना मंज़िल के.
मैं चलता ही रहूंगा?
कोई तो मुझे चलना सिखाये.
कोई तो मुझे मंज़िल दिखाए.
क्या सदा इसी इंतज़ार में
मैं चलता ही रहूंगा.
क्या अपनी मंज़िल खुद नही खोज सकता?
क्या अपने कदम खुद नही मोड़ सकता?
ख़त्म करुंगा ये इंतज़ार
फिर भी चलता ही रहूंगा.
परंतु . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .
नए उत्साह से, नए उद्वेग से.
नयी रफ़्तार, नए वेग से.
एक नयी आशा के साथ
मैं चलता ही रहूंगा.
बेसुध नही, निस्तेज नही.
स्थिर नही, पेर तेज़ नही.
उस मंज़िल को पाने के लिए
मैं चलता ही रहूंगा.
सदा चलता ही रहूंगा..
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