Sunday, September 28, 2025

लकीरें

 हाथ की लकीरों की इन उलझी बनावटों में

कितनी है छुपी सच्चाई तू ये सोच ले।

बनती बिगड़ती ये खुद तेरे कर्मो से

बदलेगी इनसे परछाई क्या तू ये सोच ले।

राह की इन ठोकरों से डर के ठहर गया

आगे अब होगा क्या मगर तू ये सोच ले।

मंज़िल जो तेरी है इन पर्वतो की छोटियो पे

होगी कैसे सरल डगर तू ये सोच ले।

चलना या रुकना या गिरना संभलना है

या करनी है कोई बड़ी भूल तू ये सोच ले।

अधीर हुए बिना जो चलता रहा अडिग

शूल भी बनेंगे फिर फूल तू ये सोच ले।

किसका है दोष और कौन दुःख भोगता है

राजा है या है कोई फकीर तू ये सोच ले।

मंज़िल भी तेरी और राह भी है तूने चुनी

करेंगी क्या इसमें लकीर तू ये सोच ले।

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