Sunday, September 28, 2025

लकीरें

 हाथ की लकीरों की इन उलझी बनावटों में

कितनी है छुपी सच्चाई तू ये सोच ले।

बनती बिगड़ती ये खुद तेरे कर्मो से

बदलेगी इनसे परछाई क्या तू ये सोच ले।

राह की इन ठोकरों से डर के ठहर गया

आगे अब होगा क्या मगर तू ये सोच ले।

मंज़िल जो तेरी है इन पर्वतो की छोटियो पे

होगी कैसे सरल डगर तू ये सोच ले।

चलना या रुकना या गिरना संभलना है

या करनी है कोई बड़ी भूल तू ये सोच ले।

अधीर हुए बिना जो चलता रहा अडिग

शूल भी बनेंगे फिर फूल तू ये सोच ले।

किसका है दोष और कौन दुःख भोगता है

राजा है या है कोई फकीर तू ये सोच ले।

मंज़िल भी तेरी और राह भी है तूने चुनी

करेंगी क्या इसमें लकीर तू ये सोच ले।

अधूरा है…

 तेरी रगो से मैं वाक़िफ तो हूँ

पर मेरा ये ज्ञान अधूरा है

ज़िन्दगी का सफर सुहाना तो है

पर शायद कुछ काम अधूरा है

जख्म है तो एहसान भी है तेरे

लगता है तेरा इंतेज़ाम अधूरा है

कुछ तो खेल किस्मत का भी है

पर लगाऊ किसपे? ये इल्ज़ाम अधूरा है

आँखों के रूबरू ख्यालों का पुलिन्दा है

पर क्या बताऊ ये ख्वाब अधूरा है

क़र्ज़ चुका दिया पर ब्याज़ बाकि है

तेरा मेरा कुछ हिसाब अधूरा है

तन्हाईयों में खुसफुसाती हैं आहटें

ज़िन्दगी तेरा ये पैग़ाम अधूरा है

मंज़िल की राह पर मैं हूँ तो सहीं

पर मेरा अभी अंजाम अधूरा है.